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यह वही मंदिर है, जिसे श्री धर वाजपेयी जी ने बनवाया था—एक अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त गणित और विज्ञान के प्रोफ़ेसर, जिनके दोनों पुत्र आज विदेश में हैं। जीवन की संध्या वेला में जब वाजपेयी दंपती की सेवा की ज़रूरत थी, तब पंडित मनोज शुक्ला ने उन्हें बेटे से बढ़कर सेवा दी। वर्षों की तपस्या और समर्पण से वह मंदिर आज जिस दुर्दशा का शिकार है, वह केवल एक व्यक्ति की नहीं, पूरी आस्था की अवमानना है।
रामनवमी के शुभ अवसर पर न भोग चढ़ा, न मां की आरती हुई। मंदिर का मुख्य द्वार बंद कर दिया गया, मानो किसी ने भक्तों की श्रद्धा पर ही ताला जड़ दिया हो। प्रसादी बाहर बंटती रही, भीतर मां का दीपक बुझा रहा। यह महज़ एक मंदिर की बात नहीं, यह उस सोच पर करारा तमाचा है, जो धार्मिक स्थलों को व्यक्तिगत सम्पत्ति समझ बैठी है।
मंदिर कोई निजी कोठी नहीं, यह जनआस्था का केंद्र होता है। विशेष पर्वों पर तो और भी अधिक श्रद्धालु उमड़ते हैं, ऐसे में मंदिर का बंद रहना, न सिर्फ़ धर्मशास्त्र के विपरीत है बल्कि सामाजिक मर्यादाओं की भी उपेक्षा है।
प्रश्न यह उठता है—जब रोज़ मंदिर खुला रहता है, तो रामनवमी जैसे पर्व पर उसे क्यों बंद किया गया? किसके आदेश से? किसके भय से? क्या आस्था अब चाबी की मोहताज हो गई है?
इंदौर प्रशासन से लोग जवाब चाहते हैं, पर उससे पहले ज़रूरत इस बात की है कि मंदिरों को निजी स्वार्थों से मुक्त किया जाए। जनता पूछ रही है—क्या यह वही धर्म है जो सबको जोड़ता है, या अब वह भी द्वारपालों की मर्ज़ी से चलेगा?
कम से कम आज—राम के नाम पर—मां के द्वार खुले होते।
भक्तों की निगाहें अब आसमान की ओर नहीं, ज़मीन पर बैठे उन लोगों की तरफ़ हैं जो 'ताले' से आस्था को नापते हैं।
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